Tuesday, December 13, 2011

"कुछ "

गहरा घना गूढ़
मगर दूर बहुत
पार नजरों के
कितना शांत
क्यों दिशांत
दिशा द्वार
अमृत धार
धरा से दूर
कहीं तिमिर
विदा मुस्कुराती
छोड़ जाती
पावन पुष्प
पदधूलि धूलि
लो प्रशान्त
लो दिगन्त
चिर अनन्त
मधुर अन्त ।

Thursday, December 8, 2011

"दीवार"

परिस्थितियों
के गुलाम
परिस्थितियां
गुलाम किसी की
कौन जाने
कितना कुछ सच
कितना झूठ
का अंबार
कौन जाने
जानने की
तुष्टि उभरती
नहीं आँखों में
नींद सुला
देती है
सब कुछ
बस आवाज
सोती नही
स्वप्न में भी
साकार
दो तरफा
संसार
बीच की
दीवार
कहीं मैं
तो नहीं 

कौन जाने।

Thursday, November 24, 2011

"बालक "

नन्हें मुन्ने बच्चो
तुम ईश्वर
का रूप हो
तुम जहां भी
रहते हो
तुम जहां भी
जाते हो
अपने अनोखे
आभा मण्डल से
आनन्द ही आनन्द
लुटाते हो
जिस व्यक्ति के
भीतर जो भी
मौजूद होता है
अंदर वही
झलकता है
बाहर वही
छलकता है
और वही
अंदर बाहर
का वातावरण
बन जाता है
मैने अनेक
संतो में
देखा है
वही बालक और
अनेक निश्चल
गृहस्थों में भी
मेरी कामना है
मैं भी कभी
तुम समान
बन पाऊं
नन्हे मुन्नों
भीतर असीम
आनंद रखूँ
बाहर भी
झलकाऊं।

Thursday, January 6, 2011

अयोध्या पर
बहुत सारे
लोगों को
बोलते सुना
कुछ
उनके विचार
कुछ अपने
मिलाकर
कुछ कुछ
एसा बना


क्या होता है
अयोध्या
शब्द का अर्थ
यही ना
जहां युद्ध
ना होता हो
जहां युद्ध
ना होता हो
वहीं तो होता है
राम का जन्म
जब तक
युद्ध रहेगा
तब तक
धुन्द रहेगी
जब तक
धुन्द रहेगी
तब तक
दृष्टि न होगी
समाधान के लिये
जरूरी है
सकारात्मक उर्जा
समाधान के लिये
जरूरी है
सकारात्मक सोच
जो की
सबको जोडे़
युद्ध की बात
न करे कोई
अयोद्धया शब्द
को सार्थक करें
अयोद्धया अर्थ
को सार्थक करें
ताकि
राम का जन्म
हर दिल में हो सके
फिर मंन्दिर बनाने
की बात पर
हाथों पर ईंट
उठायेंगे लोग जरूर
मगर मारने के
लिये नहीं
एक सुन्दर
निर्माण की
पहल के लिये
विश्व देखता
ही रहेगा
और
बन जायेगी
एक मिसाल ।
धैर्य के लिये
माने जाने वाली
धरती तक
अपना आक्रोश प्रकट
करती है
उसी की संतति ही तो है
यह समाज
फिर ये क्यों न आक्रोश
प्रकट करे
भारी असमानता के लिये
भारी असंतुलन के लिये
लोक सभा में
जब भी धमाके
गूंजते हैं
कहीं गाली घूंसे तो
कहीं मेज कुर्सी टूटते हैं
पूरी पावर प्रणाली
प्रभावित होती है
किसी गरीब की
झोपडी़ जलती है
तो किसी की
सचमुच अंधेरी होती है
किसी साहब को इस
गर्मी को पचाना आता है
किसी साहब को इस
गर्मी से पसीना आता है
पचाने की बात
काली दुनिया मे
गुम हो जाती है
पसीने वाली बात
बहुत दूर तलक
जाती है
कि किसी साहब ने
गर्मी को अपने
मातहत पर उतार दिया
मातहत ने
घर पहुंच कर
अपने बीबी बच्चों को
मार दिया
बेकसूर की मार
सीधे प्रकृति
तक जाती है
युगों से धरती
संतुलन
बनाती है ।

Sunday, January 2, 2011

स्कूल के दिनों में 
एक कविता पढी़ थी 
जिसमें रेलगाडी़ में
सफर करते हुवे 
एक व्यक्ती को 
सफर के दौरान 
रेलगाडी़ के 
दोनो ओर के
वृक्ष, घर, लोग 
सब विपरीत दिशा में 
भागते हुवे दिखाई देते हैं 
जैसे सब सांथ छोड़ के भाग रहे हों 
और केवल दूर 
आसमान का चाँद 
सांथ सांथ चल रहा 
प्रतीत होता है ।


आज एक अरसा हुवा
कितना कुछ पीछे
छूटता गया
नहीं छूटा है जो
वह तो है सांथ सांथ
मैने महसूस किया है जिसे
वही तो है चाँद
वही आस और विश्वास है
वही दोस्त है मेरा
मेरी हर भूल पर
माफ कर देता है जो
मेरे ही भीतर है वह चाँद
वह बचपन
वह स्कूल
वह कविता
और वही
कवि भी।