Monday, December 28, 2009

एक पहाडी़
      लड़की के
            गालों से
 लिपटी लाली
          की सी थी
                   मेरी कल्पना

घाटी में
      कोहरा था
              घना जैसे
रुई की
      अनगिनत
               फाहें

पहाड़ी पर
        मैं और
               मेरा घर

चारों ओर
        बांज देवदार
                  के सघन वन
नीचे छोटी सी
            पहाडी़ नदी
                     जीवन की
वास्तविकताओं से
               परे था सब
आग और धुंए से
               कोई नाता न था
न नायक था
           न खलनायक
                        था कोई

पहाड़ी पर
         मैं और
                  मेरा घर

जिन्दगी ने
         मुझे एक
                सूरज दिया
सूरज ने मुझे
           जिन्दगी दी

हंस हंस
       कर जब  
               भी देखा
आँचल भरा
          था मेरा
रोई जब भी
         आँसुओं मे
                  खो गई
मगर तब
         भी कोई
               दिशाओं को
थामे हुए
        था मेरे लिये
सवेरा लिये
             खडा़ था

पहाड़ी पर
          अब
                  'हमारा घर'

Thursday, December 24, 2009

आज
अनंत चतुर्दशी पर
गणपति विसर्जन
यात्रा के दृश्य
देखते हुए
मैंने मन में
श्री गणपति
से कहा -
विसर्जन तो
स्थूल का है
सूक्ष्म
तुम रहना
बीज रूप में,
मन में,
अंकुरित होना,
सुन्दर विशाल
वृक्ष बनने
की ओर
अग्रसर रहना
गणपति ब्रह्मा
रूप में
सुन्दर संकल्प
बनना
मेरे मन में
हंस पर
आरूड़ रहना
विवेक पूर्ण
निर्णय
लेने में सक्षम
बनाना मुझे
विष्णु रूप
में पालन
करना
केवल मेरा नहीं
वरन
सम्पूर्ण सृष्टी का
निर्भय करना
मुझे
कमल की तरह
असंग रहने का
आशीष देना
मुझे
सासों की
लगातार चलती
माला में
कहते हैं
होता है एक
अनमोल पल
उस
अनमोल पल
तक ले जाना
मुझे
मेरी लेखनी
लिखे एक
ऎसा छंद
एक कविता
एक ऎसा गीत
कि फिर कुछ
लिखना ना पडे़
ना ही कुछ
कहना
और सुनना
तुम्हारे
शिव रूप में
मेरे पास
आने तक
मैं
तैयार रहूं
गणपति
अपने विसर्जन
के लिये ।

Saturday, December 19, 2009

सच कहूँ
मैने
जब भी लिखा
किसी के
कहने पर
कागज लिया
कलम उठाई
और भीतर (मन)
झांक कर पूछा
और अब आगे ।

जब एक पंक्ती
कुछ आकार
लेने लगी
जब
रंगहीन
में रंग
गंधहीन
में गंध
शब्दों
में सौंदर्य
लय ताल
का सा बोध
होने लगा
तो उस पर
हस्ताक्षर कर लिये
मैंने खुद के ।

विचार तो
बहुत मिले मुझे
लहर लहर
गुजरते देखा
मैंने उन्हें
पलक पलक
घुमड़ते देखा
हवाओं मे
तैरते हुए
आसपास
महसूस भी
किया उन्हें
मगर कोई
अर्थ ना
दे पाई
भीतर कहीं
आर्दता में
कमी थी
जमाने के
वादों
विश्वासों
सिद्धान्तों
के बुत तो
बहुत थे
मगर
प्राणों की
कमी थी
कभी कंपन
हुआ भी
उनमें
तो होंठ
मुस्कुराने लगे
आँखें
बोलने लगी
दर्पण से
और
कागज पर
कुछ
लिख कर
हस्ताक्षर
कर लिये
मैंने खुद के ।

फिर भी
सच
यही है कि
मैने
जब भी लिखा
किसी के
कहने पर
कागज लिया
कलम उठाई
और भीतर (मन)
झांक कर पूछा
और अब आगे ।

Friday, December 18, 2009

मेरी चाह,अजब गजब सी
पूछोगे तो तुम पाओगे
बच्चों के कौतूहल मन सी
हाँ भी है और ना भी है ।

मैने रोया मैने गाया
जी भर भर कर तुम्हें सुनाया
बदले में तुमसे सुन पाऊं
हाँ भी है और ना भी है ।

अब खुशियां हैं खिली खिली सी
बादल जैसी उडी़ उडी़ सी
कब मौसम नाराज हो गया
मन की चुगली तुम्हें दे गया
तुम पंखो मे ले कर मुझको
इन्द्र धनुष के पार हो गये
मैने तुमको कुछ पहचाना
हाँ भी है और ना भी है ।

Thursday, December 17, 2009

हर सुबह की
प्रार्थना के बाद
जब शुरू
होती है सुबह
और हम सभी
होते हैं भारतीय
तब हमारा
धर्मग्रन्थ
हमारा दैनिक
समाचार पत्र
हमारी रूहों
को धोता है
हमारी
बाइबिल,
रामायण
महाभारत,
कुरान
के अतीत
को वर्तमान
का आइना
दिखाता है
हमारी नैतिकता
के आधार
किस्से कहानियों
को करता
है दरकिनार
केवल एक
प्रश्न?
जो द्रश्य
मैं देख
रही हूं
क्या तुम
भी देख
रहे हो?
ईश्वर
अल्लाह
जीजस
बैठे हैं
सांथ सांथ
शैतान के
निष्पक्ष राष्ट्रीय
दैनिक समाचार
पत्र के मुख्य
पृष्ट पर
हमारी प्रार्थना
और
हमारे प्रार्थना
करने के
स्थान
अब सामायिक
नहीं रहे
बहुत चिन्ता है
संध्या की प्रार्थना
के लिये ।

Wednesday, December 16, 2009

समकालीन
परिस्थितियों में

एक
सफल बनाम सुघड़
आदमी का
जो खाका
बनाता है

कार्टूनिस्ट

उसमें
जिंदगी के
शॉर्ट कटों
से परहेज
रखने वाले

एक
आम आदमी
की झलक
नहीं होती

क्योंकी
उसके लिये
अपारदर्शी
होना
बेहद
जरूरी है

जिंदगी का
एक
मौलिक रंग
एक
मौलिक स्वाद
रखना
अपराध है

शक्कर की एक
मोटी परत
लाज़मी है

सिक्कों के वजन
खनखनाहट
को पहचानना
शहूर है

अति संवेदनशील
होना
असभ्यता की
निशानी है

सभी कुछ
जानता है
कार्टूनिस्ट

तभी
दूर रखता है
उसे
 

कहीं सबक भी
देता है
कहीं
सजा भी

Tuesday, December 15, 2009

आज मैं
बहुत खुश हूं
एक मुट्ठी खुशी
बहुत सस्ती
मिल गयी
आँचल में एक
बादल
समा गया
एक बाली
अनाज की
भारी हो गयी
भूख के लिये
तृष्णा तर हो गयी
अंजली भर लिये
ये एक पल
मेरा और केवल मेरा
ये मैं खुद से क्यों
बयां कर रही हूं
क्या मैं
धूप खुशबू
और हवा
हो गयी हूं

Monday, December 14, 2009

रास्ता और
रास्ते के दृश्य
परिस्थिती
और पात्र
मेरी मंजिल नहीं
'एक आग का दरिया
और डूब कर जाना'
मंजिल
यहीं कहीं
जहाँ सभी से
प्रेम कर पाऊं
पर ये सब
आसां नहीं
मुझ से बडा़
मेरा कोई
शत्रु नहीं
गर इतना
मैं समझ पाऊं
हर सवाल का
जवाब पा जाऊं

Sunday, December 13, 2009

बाल्यावस्था से
मैंने दौड़ने की
कई प्रतियोगिताओं
में भाग लिया
और
कई प्रतियोगिताओं
में स्थान
भी प्राप्त किया
मुझे जानने वाले
कई लोग
इस बात पर
कौतूहल
रखते हैं
कि
जीवन में
जो व्यक्ति
गतिमान नहीं
दिखायी देता
वह किस तरह
प्रतियोगिताओं में
भाग लेता
इस प्रश्न का
जवाब
मेरे पास
भी नहीं होता
मैंने तो
इस पूरे प्रक्रम में
बस एक ही
सत्य को
पहचाना
दौड़ने से
पूर्व की एक
प्रथम मुद्रा को
जैसे
कुछ कहते हुए जाना
जब एक पैर
उठा हुवा हो
धरती से
और एक लगा
हो धरती पर
एक
इस पार हो
और
दूजा
जाने को
तैयार हो
दृष्टि
सधी हुवी हो
और
कान
हों किसी
आदेश पर
गीता कृष्ण अर्जुन
सब एक ही
जगह पर
मेरी जड़ता
और
मेरा गतिमान होना
तुम्हारा
मुझ पर सन्देह
तो कभी मुझे
सन्देह से पार
कर देना
मेरी तुमसे
शिकायत
तो कभी
हँस कर
आभार देना
बीते हुवे दिन
और
बहुत कुछ
बिखर गया
याद रह गयी बस
एक मुद्रा
दौड़ने से पूर्व
की तैयारी
तैयारी बस तैयारी
मेरा जीवन
एक पैर
उठा हुवा
धरती से
और
एक धरती से
लगा हुवा