एक पहाडी़
लड़की के
गालों से
लिपटी लाली
की सी थी
मेरी कल्पना
घाटी में
कोहरा था
घना जैसे
रुई की
अनगिनत
फाहें
पहाड़ी पर
मैं और
मेरा घर
चारों ओर
बांज देवदार
के सघन वन
नीचे छोटी सी
पहाडी़ नदी
जीवन की
वास्तविकताओं से
परे था सब
आग और धुंए से
कोई नाता न था
न नायक था
न खलनायक
था कोई
पहाड़ी पर
मैं और
मेरा घर
जिन्दगी ने
मुझे एक
सूरज दिया
सूरज ने मुझे
जिन्दगी दी
हंस हंस
कर जब
भी देखा
आँचल भरा
था मेरा
रोई जब भी
आँसुओं मे
खो गई
मगर तब
भी कोई
दिशाओं को
थामे हुए
था मेरे लिये
सवेरा लिये
खडा़ था
पहाड़ी पर
अब
'हमारा घर'
बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति। बहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteआपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
सच किया
ReplyDeleteकविता पर
पहाड़ी का सा
खूब मजा दिया।
पहाड़ी पर
गुलाब खिलाया
दिया संभावनाओं का
लाल जलाया।