Sunday, January 2, 2011

स्कूल के दिनों में 
एक कविता पढी़ थी 
जिसमें रेलगाडी़ में
सफर करते हुवे 
एक व्यक्ती को 
सफर के दौरान 
रेलगाडी़ के 
दोनो ओर के
वृक्ष, घर, लोग 
सब विपरीत दिशा में 
भागते हुवे दिखाई देते हैं 
जैसे सब सांथ छोड़ के भाग रहे हों 
और केवल दूर 
आसमान का चाँद 
सांथ सांथ चल रहा 
प्रतीत होता है ।


आज एक अरसा हुवा
कितना कुछ पीछे
छूटता गया
नहीं छूटा है जो
वह तो है सांथ सांथ
मैने महसूस किया है जिसे
वही तो है चाँद
वही आस और विश्वास है
वही दोस्त है मेरा
मेरी हर भूल पर
माफ कर देता है जो
मेरे ही भीतर है वह चाँद
वह बचपन
वह स्कूल
वह कविता
और वही
कवि भी।

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