Saturday, December 19, 2009

सच कहूँ
मैने
जब भी लिखा
किसी के
कहने पर
कागज लिया
कलम उठाई
और भीतर (मन)
झांक कर पूछा
और अब आगे ।

जब एक पंक्ती
कुछ आकार
लेने लगी
जब
रंगहीन
में रंग
गंधहीन
में गंध
शब्दों
में सौंदर्य
लय ताल
का सा बोध
होने लगा
तो उस पर
हस्ताक्षर कर लिये
मैंने खुद के ।

विचार तो
बहुत मिले मुझे
लहर लहर
गुजरते देखा
मैंने उन्हें
पलक पलक
घुमड़ते देखा
हवाओं मे
तैरते हुए
आसपास
महसूस भी
किया उन्हें
मगर कोई
अर्थ ना
दे पाई
भीतर कहीं
आर्दता में
कमी थी
जमाने के
वादों
विश्वासों
सिद्धान्तों
के बुत तो
बहुत थे
मगर
प्राणों की
कमी थी
कभी कंपन
हुआ भी
उनमें
तो होंठ
मुस्कुराने लगे
आँखें
बोलने लगी
दर्पण से
और
कागज पर
कुछ
लिख कर
हस्ताक्षर
कर लिये
मैंने खुद के ।

फिर भी
सच
यही है कि
मैने
जब भी लिखा
किसी के
कहने पर
कागज लिया
कलम उठाई
और भीतर (मन)
झांक कर पूछा
और अब आगे ।

2 comments:

  1. वाह...बहुत सुंदर भाव।

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  2. Aap ki kavita ati bhavuk aur protsah janak hai . Vichar atyant sundar aur manmohak hain shaylee bahut hee saral ....bhavanaon aur shabdon ka mel bahut hee adbhut hai . Aisa lagta hai ke apna man aapney siyahee ke madhyam se ek khuli kitab ke pannon ki tarah vistaar roop se pradarshit kiya hai jo atyant hee prosahjanak hai .

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